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कविता

नीव के पाथर

आद्याप्रसाद उन्मत्त


हम अही नीव कै पाथर, हमारी छाती बज्‍जर अस कठोर,
हमारी छाती पर डंड करइँ, राजा परजा और साह चोर।
पंडित मुल्‍ला हमरिन छाती पर, चढ़ि के धरम बघाराथीं,
औ बीर बाँकुरे हमरिन छाती, पाँव पटकि ललकाराथीं,
हमरे माथे मा होइ पसीना, तउ ई धरती हरियराइ
हमरी अँखियन के आँसू से, इ मुरझुराइ अउ सुलुगि जाइ।
ई माघ पूस कइ ठिठुरन सब, नंगिन छाती पर झेलीथै।
जब तपै जेठ कइ दुपहरिया, तपतै सूरज से खेलीथै।
हमरे हाथे का जोर पाइ के, पाथर ताजमहल बनिगा।
जंगल जंगल मा अँटकि भटकि, हम सब कइ राह बनाईथै,
सब सोवइँ सुख कइ निदिया, हम मेहनत कइ अलख जगाईथै।
नंगे पायन से रौंदि रौंदि, काटन कइ मुँह हम तोरीथै।
हम अपना छाती पटकि पटकि, धरती कइ छाती फोरीथै।
हम ओका फोरि निकारीथै, कोइला पानी औ रतन खान,
मुल जेतनइ ओका फोरीथै, ओतनइ हम छिरकी थै परान।
केउ आँख दिखावै तौ एका, फिर आँख रही की जान रही,
हम एकरे रिन से उरिन होब, जब तक ई देह परान रही।
हम अही सिपाही सीमा पै, कसिके संगीन सँभारीथै,
छाती कै लोहू गारि गारि, माटी कै करज उतारीथै।
माथे पगिया काँधे हर लइ, जब हलधर बनी सेवाँरी माँ,
तब भेद न तनिकउ कइ पाई, हम माटी माँ महतारी माँ।
माटिन माँ गति, माटिन माँ पति, माटिन मा जनम करम माटी,
माटिन कइ अही सेवकिहा हम, बस माटिन दीन-धरम माटी।
बारहौ महिना तीसउ दिन, चौसठौ घरी कइ पूजा बा,
माटिन देवता, माटिन अच्‍छत, हमरे कुछ अउर न दूजा बा।
केउ कुच्‍छउ कहइ, सुनइ कुच्‍छउ, बस आपन डिउटी जानीथै,
हम आपन जननी जनम भूमि, सरगौ से बढ़ि के मानीथै।

 


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